Friday, December 1, 2017

शरीर में आकाश तत्व क्या है – भारतीय पुरातन ज्ञान (प्रश्नोत्तर)  

शरीर में आकाश तत्व क्या है – भारतीय पुरातन ज्ञान (प्रश्नोत्तर)

Earth.मेरे द्वारा इस विषय पर दस कड़ियाँ newsclub.co.in पर लिखी गई थी। हमारे एक पाठक साथी ने इस सम्बन्ध में एक सुंदर बात पूछी है, जिसका उत्तर आप सभी को शेयर करना चाहता हूँ।

प्रश्न –  शिव जी भाईसाहब  शरीर में तत्व को देखें तो आकाश तत्व क्या है?

उत्तर –  हमारा शरीर भी पञ्च तत्वो से ही बना हैं। आकाश तत्व पहला तत्व है तथा सर्वत्र व्याप्त हैं। इस तत्व के अणुओं की सूक्ष्मता इतनी ज्यादा हैं, कि इसकी उपस्थिति का हमें कोई भान नहीं हो पाता हैं। इस तत्व की सूक्ष्मता हमारे लिए कोई अवरोध पैदा नही कर सकती है। हमारी दृष्टि तक में भी यह तत्व बाधक नहीं बन सकता हैं। हम इसे, इस में विद्यमान गुण के द्वारा ही दर्ज कर सकते हैं। शब्द इस तत्व का एकमात्र गुण है। इसके अलावा इसमें अन्य कोई भी गुण {स्पर्श, रूप (आकार), रस (स्वाद), व गन्ध} नहीं होता हैं।

हमारे शरीर में शब्द की उत्त्पति इस आकाश तत्व के कारण से ही होती हैं। हम जो बोलते है, वो शब्द, वाणी या ध्वनि इस तत्व की देन हैं। आप इसका मतलब यह ना समझे कि गूंगे आदमी में आकाश तत्व नहीं होता हैं, बल्कि उसमें भी आकाश तत्व हमारे समान ही होता हैं, परन्तु किसी शारीरिक कमी की वजह से उसकी वाणी प्रस्फुटित नहीं हो पाती हैं। हमारे पुरातन ज्ञान में वाणी के चार रूप यानि प्रकार बताये गए हैं। परा, पश्यन्ति, मध्यमा व बैखरी। जब हमारा आगमन इस दुनियाँ में होता हैं, तबसे हर दृश्य या घटना के साथ किसी भाव या विचार का स्वतः उद्ग्म हमारे अंतर्मन में होने लगता हैं, जिसका भान हमें भी नहीं होता हैं। इसे ‘परा’ कहा जाता हैं। जब किसी मौके पर वो विचार या भाव हमारी स्मृति पटल पर आता है, उसे ‘पश्यन्ती’ कहा गया हैं। जब स्मृति पटल पर आई बात को बोलने लगते हैं, तो शब्द में ध्वनि या  आवाज का उद्गम कण्ठ से होने लगता हैं, जिसे ‘मध्यमा’ कहते हैं।

उपरोक्त तीनो स्तर तक हमें कोई आवाज नहीं सुनाई देती हैं, लेकिन शब्द का निर्माण तो प्रथम अवस्था से ही शुरू हो गया। यही कारण हैं कि हमारे पुरातन ज्ञान में आकाश का गुण ‘शब्द’ बताया गया हैं, न कि आवाज।

अंततः जब विचार या भाव, शब्द के रूप में ध्वनि या आवाज के साथ बाहर निकलते हैं, तो उसे ‘बैखरी’ कहा गया  हैं। शुरू की तीन वाणी या  कम से कम शुरू की दो वाणी तो गूंगे व्यक्ति में भी रहती हैं। इस तरह शुद्ध आकाश तत्व के कारण ही हमारे शरीर में शब्द का गुण विद्यमान हैं।

जब यह आकाश तत्व अन्य तत्वो में मिलता हैं, तो उससे अन्य कई नए गुण हमारे इस शरीर में बनने लगते हैं। आकाश व वायु तत्व के मिश्रण से ‘काम’ उत्पन्न होता हैं। आकाश व तेज तत्व के मिश्रण से ‘क्रोध’, आकाश व जल तत्व से ‘मोह’ व आकाश व पृथ्वी तत्व से ‘भय’ के गुण हमारे अंदर बनते हैं।

हमारे शास्त्रों में यह भी वर्णित हैं कि मूल तत्व में अन्य तत्वो का हिस्सा मात्र 12.5% प्रति तत्व के हिसाब से रहता हैं, जबकि मूल तत्व का हिस्सा उसमें 50% होता हैं। इसी प्रकार मूल तत्व दूसरा हो व आकाश तत्व मात्र 12.5% ही हो तो पृथ्वी के साथ आकाश तत्व से ‘रोम’, जल तत्व के साथ में ‘लार’, तेज तत्व के साथ में ‘निंद्रा’ व वायु तत्व के साथ में ‘प्रसारण’ की उत्पत्ति होती हैं। शरीर में आकाश तत्व के भाग में 50% से ज्यादा वृद्धि होते ही हम शोक का अनुभव करेंगे।

इस सारी प्रक्रिया को पंचीकृत पंचमहाभूत कहते हैं। इस प्रकार कर्म के धरातल पर न आने तक आकाश तत्व का कोई भी गुण हमें परिलक्षित नहीं हो पाता हैं। सारे गुण आकाश तत्व की तरह ही अदृश्य रहते हैं। सादर नमन।

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