Thursday, August 30, 2018

आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं याँ विनाश। भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग -58)-  

व्यक्ति जिन बाहरी ज्ञानेन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता हैं, उसका मूल प्राप्ति स्थल हमारा मन ही होता हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन सभी विषयों को हमारा मन ही ग्रहण करता हैं, इस बात का अध्ययन हम स्वयं से ही कर सकते हैं। हमारी ज्ञानेन्द्रियों के सभी उपकरण तो, शरीर के बाहरी भाग में  मौजूद रहते हैं, परन्तु आपने देखा होगा कि हमारा मन जिस विषय में लगा रहता हैं, हमें केवल उसी विषय का ज्ञान याँ जानकारी हो पाती हैं।
स समय हमारी अन्य ज्ञानेन्द्रियाँ भी कार्यरत रहती हैं, परन्तु हमारा मन किसी एक विषय पर केंद्रित रहता हैं, तो अन्य विषय का ग्रहण, हमारा मन नहीं कर पाता हैं, हालाँकि उस समय भी हमारी ज्ञानेन्द्रियों के अन्य बाहरी उपकरण अपने अपने विषयों का ग्रहण कर रहे होते हैं। इस बात का उल्लेख इसलिए किया गया हैं, जिससे हम यह प्रमाणित रूप से समझ सकें कि वास्तव में सभी विषयों को एकमात्र हमारा मन ही ग्रहण करता हैं। इसका दूसरा प्रमाण यह भी हैं कि हम एक साथ दो विषयों को ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि ग्रहण करने वाला तो एकमात्र मन ही होता हैं। मन ही सभी ज्ञानेन्द्रियों का स्वामी होता हैं। यह मन शरीर में कहाँ व किस रूप में स्थित हैं, इसकी हमारे आधुनिक विज्ञान को कोई जानकारी नहीं हैं।
साधारणतया हर व्यक्ति यही कहता हैं कि हम आँख से देखते हैं, कान से सुनते हैं, नाक से सूंघते हैं परन्तु यह गलत हैं। वास्तव में आँख देखने, कान सुनने व नाक सूंघने का उपकरण मात्र हैं। इन सब से प्राप्त विषयों का ग्रहण  मन करता हैं। शरीर में मन एक ही होता हैं, इसलिए एक बार में हम एक ही विषय को ग्रहण कर पाते हैं। इसी प्रकार मन केवल ज्ञानेन्द्रियों का ही नहीं बल्कि कर्मेन्द्रियों का भी स्वामी होता हैं। हमारी कर्मेन्द्रियों का संचालन भी मन के द्वारा ही होता हैं। मन ही व्यक्ति को कर्म के मार्ग में धकेलता अथवा रोकता हैं। मन के आग्रह के बिना हमारी कर्मेन्द्रियाँ क्रियाशील नहीं हो पाती हैं।
हम अन्तःकरण रूपी सूक्ष्म शरीर की बात करें, तो इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पञ्च प्राण, मन और बुद्धि कुल सत्रह चीजें बताई गई हैं। कई लोग चित्त व अहंकार को अलग दर्ज करते हैं और कई लोग मन में चित्त व बुद्धि में अहंकार का समावेश मानते हुए केवल मन और बुद्धि का ही उल्लेख करते हैं।
न ज्ञानेन्द्रियों के बाहरी उपकरणों से विषयों को ग्रहण कर, कर्मेन्द्रियों को इच्छित भोगों में धकेलता हैं। मन हमारी कर्मेन्द्रियों को, पञ्च प्राण के द्वारा प्राप्त ऊर्जा को प्रदान कर, क्रियाशील करता हैं ताकि इच्छित भोगों की प्राप्ति की जा सके। इस प्रकार मन इन सभी यानि पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ, पञ्च प्राण का केंद्र बिंदु होता हैं। फिर मन और बुद्धि याँ मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार बचते हैं, जो भी वस्तुत चार अलग-अलग अंग न होकर मन के ही चार रूप हैं। मन के द्वारा किये जाने वाले चार कार्यों को चार अलग-अलग नाम दे दिए गए। जब हम किसी उधेड़बुन में लगे होते हैं, तो इसे मन कहा गया, जिसका कार्य संकल्प-विकल्प बताया गया हैं। ब हम उस उधेड़बुन में किसी निर्णय तक पहुँच जाते हैं, तो उस मन को बुद्धि की संज्ञा दे दी गई। बुद्धि का कार्य निर्णय लेना बताया गया हैं। जीवन में जो भी विशेष घटित होता हैं, उसकी स्मृतियाँ हमारे मन में संग्रहित हो जाती हैं, जिसे चित्त की संज्ञा दी गई हैं। जब व्यक्ति का मन यह सोचने लगता हैं कि, वो ही सब कुछ करता हैं। सब उसी ने किया हैं, तो मन की इस अवरथा को अहंकार कहा गया हैं। इस प्रकार मन बुद्धि चित्त व अहंकार, एक मन के ही चार रूप हैं, जिसे कार्य के अनुसार चार नाम दे दिए गए। ये चार काम हैं, संकल्प-विकल्प (मन), निर्णय (बुद्धि), स्मृतियों का संग्रह (चित्त) व कर्तापन का अहसास (अहंकार) जबकि ये सब एक मन के ही चार रूप होते हैं।
परोक्त वार्ता के अनुसार सूक्ष्म शरीर के सभी सत्रह अंग, हमारे मन में ही समाहित हैं। हमारे इस साधन रूप शरीर का उपयोग उपभोग मन ही करता हैं। मन ही मुख्य हैं। यही मन जीव हैं, जिसे चैतन्य आत्मा का साथ मिलने से जीवात्मा कहा गया हैं। निर्जीव शरीर व चैतन्य आत्मा के मिलन से मन रूप जीवात्मा का प्रादुर्भाव होता हैं। इसे ही सूक्ष्म शरीर कहा गया हैं। इसे ही अन्तःकरण कहा गया हैं। इसे ही लिंगदेह कहा गया हैं।
पुरातन ज्ञान के अनुसार हमारा स्थूल शरीर व चैतन्य आत्मा दोनों ही सांसारिक भोगों व मोह माया से विलग् रहते हैं। सारे विषयों में हमारा जीव रूप मन लिप्त रहता हैं। यही मन हमें कर्म के क्षेत्र में धकेल कर, योग याँ भोग की तरफ ले जाता हैं। यही मन अपने साथ अतृप्त कामनाओं व इच्छाओं को, जीवन के बीज रूप में संजोये रखता हैं, जिससे बार बार जन्म मृत्यु से गुजरना पड़ता हैं।
शेष अगली कड़ी में—–
                                                                                                                           लेखक : शिव रतन मुंदड़ा
               

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