न्यूटन का गुरुत्त्वाकर्षण का सिद्धान्त गलत हैं – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-25)
न्यूटन का गुरुत्त्वाकर्षण का सिद्धान्त गलत हैं – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-25)
अब तक की कड़ियों में सभी तथ्यों पर हमने विचार किया व हमने कई उदाहरण देकर वायु दाब की शक्ति व कार्य प्रणाली बाबत विवेचन किया, जिससे हम इस बात को सोचने के लिए अवश्य ही प्रेरित होंगे कि वास्तव में किसी भी वस्तु का पृथ्वी की ओर आने का मुख्य कारक गुरुत्त्वाकर्षण हैं या वायु दाब।
मै यह दावा तो नहीं करता हूँ कि गुरुत्त्वाकर्षण जैसी कोई चीज हैं ही नहीं, बल्कि हो सकती हैं, परन्तु उसमें वो शक्ति अथवा क्षमता नहीं हैं कि जिससे हर वस्तु को वो अपनी ओर खींच सके। विज्ञान वायु दाब को भी मानता हैं, परन्तु वायु दाब को विज्ञान ने अधूरा महत्त्व देकर गुरुत्त्वाकर्षण को भी जिन्दा रखा, जबकि गुरुत्त्वाकर्षण का सिद्धांत अब तक पूर्णतया गलत घोषित कर दिया जाना चाहिए था।
सभी ग्रहों में यह गुरुत्त्व बल जो पाया जाता हैं, वो ग्रह द्वारा अपनी धुरी पर घूमने के कारण उत्पन्न होता हैं। जो भी वस्तु अपनी धुरी पर घूमती हैं, उससे स्वतः एक चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण होता हैं, जो घर्षण से होता हैं। हमारी पृथ्वी भी अन्य ग्रहों की तरह अपनी धुरी पर अनवरत घूमती रहती हैं, और पृथ्वी के चारों ओर लिपटे वायु मण्डल से उसका घर्षण सम्भवतया अन्य ग्रहों की अपेक्षा ज्यादा चुम्बकीय क्षेत्र पैदा करता हो, क्योंकि अन्य ग्रहों पर वायुमण्डल की अनुपस्थिति से घर्षण की क्रिया न्यून हो जाती हैं, लेकिन फिर भी चन्द्रमा के गुरुत्त्वाकर्षण से समुन्द्र में ज्वार भाटा आने की बात विज्ञान द्वारा कही जाना आश्चर्यजनक लगती हैं, जबकि विज्ञान के अनुसार चन्द्रमा का गुरुत्त्व बल हमारे पृथ्वी ग्रह के मुकाबले छः गुना कम हैं। ऐसे में चन्द्रमा अपने गुरुत्त्व बल से समुन्द्र में आने वाले ज्वार भाटे को कैसे उत्पन्न कर सकता हैं? वैसे भी चंद्रोदय के बाद तो समुन्द्र के पानी पर वायु का दबाब बढ़ता हैं जिससे समुन्द्र का पानी फैलता हैं। यहाँ आकर्षण या खिंचाव वाली बात का तो कोई वजूद ही नहीं हैं।
हम सूर्य की बात भी करें, तो सूर्य यदि अपने गुरुत्त्व बल से समुन्द्र का पानी अपनी ओर खींचने की क्षमता रखता हैं तो आम जलाशय या बांधों व झीलों के पानी को अपनी ओर क्यों नहीं खींचता हैं?इन सब बातों से यह स्पष्ट हो जाता हैं कि ज्वार भाटे में सूर्य व चंद्रमा के गुरुत्त्व बल का कोई रोल नहीं हैं। हाँ, सूर्य व चंद्रमा से जो पृथ्वी के जलवायु में परिवर्तन आता हैं, उसका जरूर मुख्य रोल होता हैं।
विज्ञान के अनुसार कई ग्रहों पर वायुमण्डल नहीं हैं, अथवा कई ग्रहों पर अलग अलग तरह की गैसे पायी जाती हैं, जो जीवन के लिए पर्याप्त नहीं हैं। हमारा सूर्य तो पूर्ण रूप से गैसों से बना पिंड हैं, जिसमे 75 प्रतिशत हाइड्रोजन व 25 प्रतिशत हीलियम हैं। देखा जायें तो विज्ञान जिन्हें गैसों के नाम से परिभाषित कर रहा हैं, वो भी सभी वायु का ही भाग हैं। वायु शब्द में सभी गैसे समाहित हैं। हमारे पुरातन ज्ञान के अनुसार इस बात का विश्लेषण करें तो आकाश तत्त्व सर्वत्र व्याप्त हैं। आकाश तत्त्व की उपस्थिति में ही वायु तत्त्व का निर्माण होता हैं। फिर क्रमशः तेज, जल व पृथ्वी तत्त्व का निर्माण होता हैं।
अगर हम इसी आधार पर सोचें तो आज जो भी ग्रह अपने ठोस रूप में मौजूद हैं, तो निश्चित रूप से उन ग्रहों पर आज से पूर्व कभी ना कभी वायुमण्डल व जल अनिवार्य रूप से रहा हैं वर्ना आज का यह ठोस रूप सम्भव ही नहीं होता। यह अलग बात हैं की जो वायुमण्डल या जल उन ग्रहों पर कभी उपलब्ध था वो जीवन हेतु अनुकूल था या प्रतिकूल। दोनों ही स्थिति सम्भव हैं क्योंकि जीवन पनपने के लिये आवश्यक वायुमण्डल व जल तत्त्व कुछ भिन्न हो सकता हैं, परन्तु केवल जीवन पनपने की बात तक हम वायु व जल तत्व को सिमित नहीं कर सकते हैं।
शेष अगली कड़ी में……………… लेखक व शोधकर्ता : शिव रतन मुंदड़ा
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