Wednesday, June 21, 2017

आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-30) 

आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-30)

 

स जमाने में बिमारीयाँ व महामारी आदि भी काफी थी, जिसमें प्लेग, चेचक आदि का प्रकोप हमारे समय तक काफी कम हो गया था, परन्तु हैजा, मलेरिया, टाईफाइड, दमा, फोड़े-फुंसियाँ, नकसीर, बवासीर, सिरदर्द, पेटदर्द, उल्टियाँ, बुखार, पीलिया आदि आम बिमारीयां थी। जहरीले जानवर व कीड़ो के काटने से होने वाली शारीरिक व्याधियां भी बहुत थी। गन्दे पेयजल से होने वाले, पीलिया व नारू रोग भी बहुतायत से देखने को मिलते थे। इनका उपचार घरेलू दवाइयों, व हकीम-वैद्य की सहायता से किया कराया जाता था। रोग साधारणतया ठीक हो जाते थे, परन्तु महामारी में भारी जनहानि होती थी, क्योंकि कई बार छोटे छोटे गांवों में बीमार की देखभाल के लिए भी कोई व्यक्ति शेष नहीं बचता था।  

प्रसव का कार्य अनुभवी महिलाएं, जिन्हें दाई कहा जाता था, के द्वारा सम्पन्न कराया जाता था। हालाँकि बाल व शिशु मृत्यु दर आज की अपेक्षा बहुत ज्यादा थी, परन्तु उत्पादन यानि जन्म दर भी बहुत ज्यादा थी। अधिकांशतः आठ दस बच्चे एक महिला के पैदा होना आम बात थी। उसमें जिन्दा, किसके कितने रहते अथवा बचते थे, यह अलग बात थी। कई लोगों के सन्तान बिलकुल भी नहीं होती थी, ऐसा भी देखने को मिलता था। इतनी सन्तान पैदा करने व पालने के बावजूद भी महिलाएं सारे घर का कार्य व शारीरिक मेहनत बराबर करते हुए जीवन यापन करती थी।

हिलाओं पर कार्य भार पुरुषों के मुकाबले ज्यादा रहता था। जहाँ पुरुष मात्र आमदनी हेतु व्यापार, नौकरी या मजदूरी का कार्य करता था, वहीं महिलाएं बच्चों के लालन-पालन के आलावा खेती व पशुपालन में भी सहयोग करती थी। खाना पकाना, अनाज की सफाई, कपड़े बर्तन धोना व मांजना, घर की साफ सफाई करना, अनाज पीसना, मसाले आदि कूट-पीसकर तैयार करना, कुँए से पीने व नहाने का पानी भरकर लाना, पशुओं को चारा पानी देना, मेहमानों को आदर सत्कार करना आदि अनेकोनेक कार्य करने पड़ते थे। सुबह भोर के तारे में उठकर देर रात तक गृह कार्य में व्यस्त रहना ही जीवन की दिनचर्या रहती थी। दिन, महीने और वर्ष कब गुजर गए, पता ही नहीं चलता था।

पैसे वाले धनी लोग गिने चुने ही होते थे, जिन्हें लोग आदर की निगाह से देखते थे। उनका धनी होना, लोग ईश्वर की कृपा या भाग्य का होना मानते थे। धनी लोग भी सार्वजनिक हित में स्वेच्छा से पैसे को खर्च करते थे। तालाब, कुआं, बावड़ी, सराय, प्याऊ, मन्दिर, पाठशाला आदि का निर्माण कराके ख़ुशी अनुभव करते थे। जरूरतमन्द व किसानो को पैसा भी उधार देते थे, जिन्हें फसल आने पर समायोजित कर लिया जाता था। फसल न होने पर अगले वर्ष फिर सहयोग देकर  फसल आने का इन्तजार करते थे।

र परिवार अथवा समाज के नाइ, धोबी, पण्डित, ढोली, हरिजन, ग्वाल आदि स्थायी रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी चलते थे।इन्हें जनम, परण, मरण, तीज-त्योंहार आदि मौकों पर अनिवार्य रूप से बुलाया जाता था। वो लोग भी इन मौकों पर आना अपना हक समझते थे। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भाव या अहंकार किसी के मन में नहीं रहता था। हर व्यक्ति अपने हालात व स्तर से सन्तुष्ट था या उसे ईश्वर इच्छा मानते हुए सहज रूप से स्वीकार करता था।

सारा सामाजिक ताना-बाना समरसता व एक-दूसरे की निर्भरता पर टिका हुआ था। कम आबादी की वजह से सभी एक दूसरे से परिचित होते थे, जिससे कोई भी व्यक्ति गलत कार्य करने का साहस नहीं कर पाता था। गलत कार्य पर कोई भी व्यक्ति किसी के भी बच्चे को डांट फटकार सकता था।

शेष अगली कड़ी में—-

Related Post

राष्ट्रपति चुनाव: ‘दलित कार्ड’ बनाम ‘किसान कार्ड’ ?

राष्ट्रपति चुनाव: ‘दलित कार्ड’ बनाम ‘किसान कार्ड’ ?

  राष्ट्रपति चुनाव: ‘दलित कार्ड’ बनाम ‘किसान कार्ड’ ? एनडीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के नाम के आगे विपक्ष की बुद्धि कुंद हो ...

Add a Comment

Leave a Reply

SiteLock