आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश- भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-51)
आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश- भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-51)
हमारे शास्त्र, ग्रन्थ, वेद, उपनिषद्, गीता, आदि जो हमारे पुरातन ज्ञान की धरोहर हैं, और जो संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध हैं, को कितने लोग पढ़ते-समझते हैं? हालात तो इतने दुष्कर हो चुके हैं कि आजकल के युवाओं को मातृ भाषा हिंदी लिखना-पढ़ना नहीं आती हैं, तो प्राचीन ग्रंथों की मूल भाषा संस्कृत का पूर्ण ज्ञान किसी में होने की सोचना तो हमारी मूर्खता ही होगी। हमारे लिए ख़ुशी की बात यह हैं कि, इस दुर्लभ ज्ञान का हिंदी रूपांतरण आज उपलब्ध हैं। हमारे कई शास्त्र व उपनिषद् जो नहीं मिल रहे हैं याँ खो चुके हैं, उनके ज्ञान से हम आज भी वंचित हैं। कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में पूरी दुनियाँ ने भाग लिया था। सारे संसार के राजा दो दलों में बंट गए थे। कोई कौरवों की तरफ, कोई पांडवों की तरफ। युद्ध समाप्ति के बाद मृत्यु से बच गए लोग, जब अपने-अपने देश को वापस गए, तब हमारी यह अनमोल धरोहर यानि हमारे ज्ञान का भण्डार, हमारी हस्तलिखित पुस्तकें, वो लोग अपने साथ ले गए। यही कारण रहा कि आज हमारे पास अपना सम्पूर्ण पुरातन ज्ञान उपलब्ध नहीं हैं। दूसरा हमने अपनी भाषा का ज्ञान खो दिया। पश्चिम के द्वारा की गई वैज्ञानिक खोजो का विवरण व उल्लेख उन्होंने अपनी भाषा में किया। यह उल्लेख हमारे शास्त्रों में यदि पहले से ही मौजूद हैं, तो भी हम भाषायी पृथकता के चलते, उसे समझा पाने याँ खुद समझ पाने में असमर्थ हैं।
हमारे प्राचीन ज्ञान में इंसान के शरीर व उसकी असाधारण क्षमता बाबत जो विशाल जानकारी उपलब्ध हैं, उस पर अनुसन्धान होना आज भी पूर्णतया बाकी हैं। पुरातन ज्ञान के अनुसार हम आत्मरूप हैं, यानि आत्मा हैं। शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मा। जो न तो जन्म लेती हैं, और न मरती हैं। वह पूर्ण रूप हैं, यानि जिसे कुछ भी नहीं चाहिए। जिसे कुछ चाहिए, वह अपूर्ण माना गया हैं। वह सदैव चेतन व साक्षी रूप में रहती हैं। उसे रोग, जरा, काल, मोह-माया, निंद्रा, भूख-प्यास आदि कोई नहीं झकड सकता। शुद्ध रूप होने से हम उसे देखने में असमर्थ हैं। अपने ज्ञान चक्षु द्वारा हम उसका अनुभव अवश्य कर सकते हैं, परन्तु उस अनुभव को, शब्दों के माध्यम से किसी अन्य को नहीं बता सकते, न ही समझा सकते हैं, क्योंकि आत्मा शब्द से परे हैं।
★ मूलतः हम सभी लोग इसी तरह के हैं क्योंकि हम आत्मा हैं, परन्तु क्या वास्तव में हमें, ऐसा ही लगता हैं?
★ आत्मा के सम्बन्ध में वर्णित यह सब बातें, क्या मिथ्या याँ काल्पनिक हैं?
★ क्या भारतवर्ष में हमारे इस अद्भुत ज्ञान की खोज बाबत, कभी कोई परीक्षण, आयोजन याँ सम्मेलन हुआ?
★ क्या हमारे विज्ञान ने इस उपलब्ध ज्ञान को, गम्भीरता से कभी कोई महत्त्व दिया?
★ क्या हमारे प्राचीन ज्योतिष विज्ञान, जिसमें चाँद, तारों, ग्रह-नक्षत्रों आदि की सटीक व सही जानकारी उपलब्ध हैं एवम् जिनसे मानव शरीर पर होने वाले प्रभावों का भी विस्तृत वर्णन हैं, पर विज्ञान द्वारा कभी कोई शोध हुआ? कभी कोई विचार संगोष्टी हुई?
★ यह विचार तो हर जिज्ञासु के मन में आता होगा कि पुरातन काल में, जब विज्ञान नहीं था, तब इतने दूर स्थित सूर्य, चाँद, तारों, ग्रह नक्षत्रों आदि की गति, दुरी, परिभ्रमण काल इत्यादि की एकदम सही व सटीक जानकारी कैसे प्राप्त की गयी?
★ प्राचीन समय के लोगों की लम्बी आयु, उनके असीम शारीरिक बल व साहस का क्या कारण था?
उपरोक्त सारी बातें वो ही बता रहा हूँ, जिसे हम झुठला नहीं सकते। जिन्हें हम काल्पनिक नहीं कह सकते। पर इन बातों याँ तथ्यों को आधार बनाकर, वर्तमान विज्ञान द्वारा इन रहस्यों की खोज हेतु कभी कोई रुपरेखा याँ कार्यक्रम नहीं बनाया गया। ऐसा क्यों?
वर्तमान आधुनिक विज्ञान हमारी स्थूल देह को आधार मानकर, खोज व अन्वेषण कर रहा हैं, जबकि पुरातन ज्ञान के अनुसार यह पंचभौतिक देह रूपी शरीर, जीवात्मा का घर हैं। अब आप बतावें कि कोई भी सुख-सुविधा, घर में रहने वाले जीवित व्यक्ति को मुहैया करानी चाहिए याँ बेजान घर को? इसी बात को मै विनाश का कारण बता रहा हूँ।
जब तक हमारा आधुनिक विज्ञान, सूक्ष्म शरीर (अन्तःकरण / मन / जीव आदि सूक्ष्म शरीर के ही नाम हैं) को मद्देनजर रखकर विकास की नीव तैयार नहीं करेगा, जब तक विज्ञान प्रकृति के नियमो को मद्देनजर रखकर विकास की नींव तैयार नहीं करेगा, तब तक हर खोज विनाश को ही पैदा करेगी। विकास केवल स्वप्न मात्र दृष्टिगोचर होगा।
शेष अगली कड़ी में—-
लेखक : शिव रतन मुंदड़ा
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