Friday, September 20, 2019

आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश- भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-52)  

आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश- भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-52)

भारतीय पुरातन ज्ञान के अनुसार जीव रूप अन्तःकरण में मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार इन चारों का समावेश होता हैं। कई लोग मन के साथ चित्त का व बुद्धि के साथ अहंकार का समावेश करते हुए मन और बुद्धि, को ही अन्तःकरण का भाग मानते हैं।
हमारे पुरातन ज्ञान के अनुसार मन संकल्प विकल्प का कार्य करता हैं। मन हमारी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को संचालित करता हैं। उसी के अनुसार पञ्च प्राण  क्रियाशील रहते हैं। इस प्रकार पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्च कर्मेन्द्रियाँ और पञ्च प्राण ये पन्द्रह अवयव मन में ही समाहित हैं। मन को ही संसार बताया गया हैं।
बुद्धि निर्णय का कार्य करती हैं। चित्त स्मृतियों का भण्डार यानि संग्रहकर्ता होता हैं। अहंकार, कर्म के कर्तापन यानि सब कुछ मै करता हूँ याँ मैंने किया हैं, को कहा गया हैं। चित्त और बुद्धि का उपयोग भी मन ही करता हैं। मैने ही सब कुछ किया, यह अहसास भी मन ही करता हैं, जिसे अहंकार कहते हैं। परोक्त बातों पर हम ग़ौर करें तो लगेगा कि मन ही अन्तःकरण का मुख्य भाग हैं। संक्षेप में हम यह भी कह सकते हैं कि, मन ही जीव हैं।
स प्रकार मन ही मुख्य हैं परन्तु,
मन क्या हैं?
यह हमारे शरीर के किस हिस्से में हैं?
इसका रूप व आकार क्या हैं?
इसकी कार्य प्रणाली क्या हैं?
ज के विज्ञान के पास इन सब का कोई उत्तर नहीं हैं। वह मन को भी नहीं मानता हैं। विज्ञान केवल उसी चीज को मानता हैं, जिसका प्रमाण हो। जिसे सिद्ध किया जा सके। जो शरीर हमारे पुरातन ज्ञान के अनुसार मृत हैं, वो शरीर विज्ञान के लिए, चलता फिरता दिखाई देने से मुख्य हो गया हैं। विज्ञान हमारे इसी मृत दैहिक शरीर को प्रमाणित कर सकता हैं, इसलिए वो इसी को मुख्य मान कर चल रहा हैं,जबकि हमारे पुरातन ज्ञान में बाहरी शरीर को मात्र साधन रूप बताया गया हैं।
स बात को इस तरह से समझें कि हमारे पास एक कार हैं। दूसरों को वो चलती हुई दिखाई देती हैं, परन्तु वास्तव में उसे कोई और चला रहा हैं। वह खुद नहीं चलती हैं। इसी तरह हमारा शरीर भी चलता हुआ दिखाई देता हैं, पर वह खुद नहीं चलता बल्कि हमारा मन उसे चलाता हैं। मन उसका ऑपरेटर हैं। जिस तरह कार साधन हैं, उसी तरह हमारा शरीर भी साधन ही हैं।
यहाँ पर इन सारी बातों का उल्लेख इसलिए किया गया हैं कि हम यह जान सके कि स्वयं शरीर की कोई आवश्यकता नहीं हैं। सारी इच्छाएँ मन की होती हैं। शरीर उन इच्छाओं की पूर्ति का साधन हैं। हम शरीर के बिना भोग नहीं कर सकते, इसीलिए शरीर ही हमारे लिए मुख्य लक्ष्य हो गया। हम शरीर को ही सुख सुविधा प्रदान करने में लग गए। आधुनिक विज्ञान ने भी सारी खोजें व सुविधायें इस शरीर के लिए ही बनाई हैं। वास्तव में जीवन व जगत को आनन्दमय बनाना हैं, तो आत्म कल्याण को ध्यान में रखते हुए विकास की ओर बढ़ना होगा।
जिस संसार को शास्त्रों में मायारूप बताया गया हैं, वो हम सभी को असली यानि वास्तविक लगता हैं। माया का अर्थ हैं कि, जो दिखाई दे रहा हैं, परन्तु वास्तव में वैसा कुछ हैं नहीं। हमने जादूगर K.Lal का मायाजाल देखा होगा। यहाँ भी माया का अर्थ यही हैं कि, जादूगर हमें जो भी दिखाता हैं, वो असली प्रतीत होता हैं, लेकिन वास्तव में वैसा कुछ नहीं हैं। सब मायारूप हैं। यह संसार भी मायारूप बताया गया हैं। जो भी दिखाई दे रहा हैं, वो सब हमारा भ्रम हैं, अज्ञान हैं। संसार का यह सारा ताना-बाना हमारा मन रचता हैं। संसार का निर्माण मन करता हैं। मन हैं तो संसार हैं। अमन की स्थिति ही मुक्ति हैं। आनन्द हैं।
इस मन के लिए विज्ञान ने कौनसी खोज की हैं?
मन को कैसे वश में रखा जाय, इस बाबत विज्ञान ने क्या साधन ईजाद किये हैं?
इतने साधन-सुविधा जुटा लेने के बावजूद भी इंसान सुखी क्यों नहीं हो पाया हैं?
इन सब के पीछे मूल कारण आज का विज्ञान हैं, जिसने अपने अविष्कारों एवम् खोजों से मन की हवश को बढ़ावा दिया हैं। उसे यह पता नहीं हैं कि, मानव मन कैसे कार्य करता हैं?
हर अच्छाई बुराई में क्यों बदल जाती हैं?
किसी भी खोज का उपयोग बुराई तक क्यों पहुँच जाता हैं?
ज व्यक्ति को  पैसा, पद, आमोद-प्रमोद के साधन, विज्ञान का जलवा, आदि कोई भी सुखी नहीं कर पा रहा हैं। हर व्यक्ति पागलों की भाँति दौड़ता नजर आ रहा हैं। हमारे पास आधुनिक साधनों की भरमार होने के बावजूद भी हम अत्यधिक व्यस्त हो गए।
फिर कैसा विकास हुआ हैं?
कौनसा विकास हुआ हैं?
आप कुछ तो बतावे, जिसे विकास की श्रेणी में रखा जा सकें।
शेष अगली कड़ी में—-
                                                                                   लेखक : शिव रतन मुंदड़ा

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