आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-35)
आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-35)
आधुनिक टीकाकरण की जो बात बताई गई हैं, उससे मेरा तात्पर्य यह नहीं समझें कि इस बात के द्वारा टीकाकरण का विरोध किया जा रहा हैं। यह टीकाकरण आज हमारी मजबूरी बन गई हैं। हम आज जिस वातावरण में जी रहे हैं, उसे देखते हुए हम चाहकर भी इस टीकाकरण से मुक्त नहीं हो सकते।
आज कोई भी सामग्री या वस्तु अपने प्राकृतिक रूप में नहीं रही हैं। बढ़ती आबादी व पूंजीवादी सोच के कारण विज्ञान द्वारा ही प्रकृति को विनष्ट करने का कार्य किया गया हैं व किया जा रहा हैं। कुछ उदाहरण आपके समक्ष रखता हूँ, जिसके आधार पर आप पूरी बात पर मनन कर सकें-
सब्जियों पर रंगो का प्रयोग।
शंकर नस्ल बीजो का निर्माण।
यूरिया खाद से दूध का निर्माण।
फलों को जहर से पकाया जाना।
क्रीम निकालकर घी बनाया जाना।
सेव जैसे फलो पर मोम की कोटिंग।
फसलों पर कीटनाशकों का छिड़काव।
बीजो के संरक्षण हेतु जहर का उपयोग।
मसालों में कलर का उपयोग व मिलावट।
पैदावार बढ़ाने के लिए जहरीली खादों का प्रयोग।
दूध वृद्धि के लिए जानवरों के रोज इंजेक्शन लगाना।
सब्जियों की तुरन्त वृद्धि हेतु इंजेक्शन लगाया जाना।
दो भिन्न नस्लो के बीजों को मिलाकर, तीसरी नई नस्ल बनाना।
पीने के पानी को स्वच्छ व शुद्ध रखने हेतु अपनाने वाली प्रक्रिया।
फल, सब्जियाँ, दूध, दही, छाछ जैसी दैनिक प्रयोग वाली वस्तुओं का शीत गृहों में भण्डारण कर उपयोग में लेना।
उपरोक्त कुछ उदाहरण, वो ही प्रस्तुत किये गए हैं, जिनका हमारे जीवन व खान-पान से सीधा सम्बन्ध हैं। यदि हमें इसी हालात में जीना हैं, तो फिर इस टीकाकरण का विरोध किस आधार पर करें? हमें मजबूरीवश इसे अपनाना ही पड़ेगा। विज्ञान ने विकास की इस राह में, प्रकृति को शुरू से ही नजरअंदाज कर दिया, जिससे हम आज उस दोराहे पर खड़े हो चुके हैं, जहाँ से जिधर भी जाना चाहें उधर ही विनाश निश्चित हैं।
खान-पान के अलावा जीवन का दूसरा पहलू हवा और मिट्टी से जुड़ा हुआ हैं। ये दोनों तत्त्व भी विज्ञान की वजह से पूर्णतया दूषित हो चुके हैं।
कार्बन उत्सर्जन।
जंगलो का सफाया।
महानगरों का बसना।
हथियारों का परीक्षण।
खनिजों का अंधाधुंध दोहन।
यातायात का अनावश्यक बढ़ता दबाब।
प्राचीन व परम्परागत जल स्रोतों की उपेक्षा।
प्रकृति के रहस्यों को जानने हेतु किये जा रहे प्रयोग।
सभ्यता के नाम पर अपनाई जा रही नई जीवनशैली।
जानवरों की हत्या और उन पर किये जा रहे अत्याचार।
इत्यादि अनेक कार्यो से हवा व भूमि, दोनों को खराब कर दिया गया हैं।
एक समय ऐसा भी था, जब व्यक्ति यदि चोटिल हो जाता अथवा शरीर का कोई हिस्सा छिल जाता, तो साफ जमीन पर से बारीक़ रेत उठाकर चोटिल स्थान पर लगा देते थे। खून के साथ मिट्टी चिपक जाती थी। खून आना भी बन्द हो जाता था। उस जगह पर नई चमड़ी आने तक, वो मिट्टी ही दवा का काम करती थी। आज पचास सालों में ही इतना परिवर्तन हो गया हैं कि यदि आप चोटिल हो गए अथवा रगड़ जाने से छिल गए, तो तुरन्त टिटनस का इंजेक्सन लगाना पड़ता हैं। यदि नहीं लगाते हैं, तो किसी मौके पर यह लापरवाही आपके लिए जानलेवा साबित हो सकती हैं। अब ऐसे में भला घाव पर मिट्टी लगाने की बात कहना या सोचना मूर्खता ही होगी। आज के हालात में यह सम्भव भी नहीं हैं क्योंकि जहाँ भी इंसान के कदम पड़े हैं, वो हर जगह प्रदुषित हो चुकी हैं।
पहले गहरा घाव या चोट लगने पर, घर में पड़े किसी साफ सूती कपड़े को पूरा जलाकर, उसकी राख को तुरन्त उस घाव पर लगा देते थे। इसमें सावधानी यह जरूर रखनी पड़ती थी कि घाव पूरा भरा जाय व घाव के अंदर कोई अन्य चीज या गन्दगी न रहें। यह राख घाव को पूर्णतया ठीक कर देती थी। कई बार यह नुस्खा अपने जीवन में आजमाया हुआ हैं, पर आज शुद्ध सूती कपड़ा भी जरूरत पड़ने पर नसीब नहीं होता हैं और न ही किसी पढ़े लिखे नौजवान को इस पर विश्वास होता हैं। आज तो तुरन्त रोगी को अस्पताल में ले जाकर टांके लगा दिए जाते हैं, जिसका निशान जीवन पर्यन्त रहता हैं, जबकि हमारे इस प्राचीन देशी नुस्खे में चोट का निशान तक भी नहीं रहता था।
शेष अगली कड़ी में—