आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-42)
आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं या विनाश – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-42)
विद्युत की खोज के बारे में लिखे गए भाग-41 बाबत पाठको से कई प्रश्न व प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं, जो नीचे प्रस्तुत की जा रही हैं –
1-क्या आज विद्युत नहीं होती तो ठीक होता?
2-विद्युत के फायदों को देखें, फिर अपनी बात समझावें।
3-आप चाहते हैं कि दुनियां अँधेरे में खो जावें।
4-आप की नजर में विज्ञान पूरा गलत हैं, जबकि ज्ञान विज्ञान की बात का हमारे शास्त्रों में भी उल्लेख हैं।
5-पहले विद्युत कहाँ थी? यह तो विज्ञान की खोज हैं।
पहली बार इतनी प्रतिक्रियाएं आई हैं, यह मेरे लिए ख़ुशी व और भी सजगता की बात हैं, परन्तु मै आप सब से अनुरोध करता हूँ कि जिस लिंक से आपको यह कड़िया भेजी जा रही हैं, उसीमें नीचे आप अपने विचार लिख कर भेजे तो यह बात सभी को पढ़ने समझने हेतु मिलेगी, जो ज्यादा उचित रहेगी। इस लिंक से प्रसारित हर समाचार के नीचे एक कॉलम comments के नाम से दिया हुआ हैं, जिस पर आप अपनी बात लिख सकते हैं।
अभी जिस विषय पर लिखा जा रहा हैं, वह हैं, विज्ञान से विकास हुआ अथवा विनाश। कोई भी बात विषय के परिपेक्ष्य में लिखी जाती हैं और उन्हीं बातों का उल्लेख होता हैं जो विषय से सम्बंधित हों। मैंने विद्युत को विज्ञान की बड़ी खोज बताया हैं। इससे बहुत लाभ हुए हैं, परन्तु हर लाभ को हमने नुकसान तक पहुंचा दिया। माचिस से चूल्हा, दीपक प्रज्वलित करना बड़ा सुगम हो गया। यह खोज भी छोटी नहीं हैं, परन्तु इसी से मकान, दुकान, जंगल या इंसान जलाये जाने लगे तो लाभ क्या मिला? विज्ञान की प्रत्येक खोज का, आज जो वास्तविक उपयोग हो रहा हैं, उसी को आधार बनाकर यह लेखमाला लिखी जा रही हैं।
पुरातन काल में आज की तरह विद्युत की उपलब्धता नहीं थी, परन्तु आज की तरह जीवन अवश्य मौजूद था। बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं हैं। हमारे बुजुर्ग भी विद्युत के बिना ही जिए थे। उस समय भी रात को रौशनी, व भोजन पकाने हेतु आग का प्रयोग तो होता ही था। आवश्यकता की पूर्ति उस जमाने में भी होती थी। फिर विद्युत आ गई। बड़े बड़े कल कारखाने लग गए। नए नए उपकरण बनने लगे। मनोरंजन, चिकित्सा, यातायात, निर्माण, फैशन, जीवनशैली, खानपान, संचार, शिक्षा यानि लगभग सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी बदलाव आ गए। आज की पीढ़ी को शायद इन बदलावों की पहचान न हों पावें परन्तु आप अवश्य परिचित हैं। जब कल कारखाने नहीं थे, तब उत्पादन सीमित था, तो लोग केवल आवश्यकतानुसार ही सामान का संग्रह करते थे। अब उत्पादन खूब हो रहा हैं। लोगों को विज्ञापन द्वारा आकर्षित कर करके खरीदने हेतु प्रेरित किया जा रहा हैं। अपरिग्रह की बातें करने वाले लोग भी ढेरों कपड़े जूते घड़ियां बेल्ट टाई आदि सामान इकट्ठा किये जा रहे हैं। आप इसे विकास कहेंगें? इसमें आपको प्रदर्शन, अहंकार, राग-द्वेष, परिग्रह, अपव्यय जैसे विनाश के बादल दिखाई नहीं दे रहे हैं?
अब तो हालात अति उत्पादन पर आ चुकी हैं, जिसके कारण विकसित देशों में सप्ताह की दो छुट्टी रखी जाने लगी हैं। अब तीन अवकाश रखने पर भी विचार किया जा रहा हैं। यह सब बातें मानवतावादी विचारों के तहत नहीं बल्कि मजबूरीवश करनी पड़ रही हैं। अति उत्पादन की वजह से ही विकसित देशों द्वारा वैश्वीकरण (विश्व व्यापार समझोते) का ज़ाल रचा गया, जिससे अपना उत्पादन भारी आबादी वाले देशों में खपा सकें। अब तो यूज एन्ड थ्रो वाली चीजों का उत्पादन होने लगा हैं, ताकि कारखाने बन्द ना हों सके। नए जमाने की गाड़ियाँ व मोटर कारे भी ऐसी बनने लगी हैं, जिनमें कोई भी पार्ट मरम्मत नहीं होता हैं बल्कि बदल दिया जाता हैं (No repairs – Only replacement) .
पहले भी यातायात के साधन थे। रास्ते कच्चे व असमतल थे। जानवरों का उपयोग होता था। पशुधन का उपयोग था। जानवरों को पूर्ण सुरक्षा व सुविधा से आदर के साथ रखा जाता था। यात्रा धीमी गति से होती थी, लेकिन फिर भी रास्तों में साधनों की भीड़ नहीं दिखती थी। अब हमने आवाज से भी तेज गति को प्राप्त कर लिया। रास्ते पक्के समतल व चौड़े बना लिये, फिर भी गाड़ियों की भरमार देखने को मिलती हैं। जाम लग जाते हैं। आने जाने के अलग अलग रास्ते बनने के बावजूद, फोर लेन, सिक्स लेन बनने के बावजूद भी हालात जस के तस नजर आ रहे हैं। क्यों? क्या फायदा हुआ इन साधनो का व इस गति का?
लोग अनावश्यक घूमने लगे। जीवन में एक बार तीर्थ करने वाले अब हर वर्ष जाने लगे। लोगों ने अपना कार्य क्षेत्र बढ़ा लिया। युवा अनावश्यक गाड़िया दौड़ाने लगे। लोग यात्रा शौक मौज के लिए करने लगे, आवश्यकता के लिये नहीं। धर्म के नाम पर लोग हर अमावस्या पूर्णिमा पर धर्मस्थलो पर फेरी देने लगे। कहीं पर जाओ, सब जगह भीड़। हर जगह No vacancy का बोर्ड।
संचार के साधनो में हुई वृद्धि के बाद भी इसमें कोई फर्क नहीं आया। लोगो की मानसिकता व व्यवहार में आमूल चुल परिवर्तन हो गया। पशुधन विशेषकर मेल, जिनसे दूध नहीं मिलता, बेकार व अनुपयोगी हो गए। केवल मांसाहारी लोगो का निवाला बनने के अलावा उनका कोई उपयोग नहीं रहा हैं। गौवंश की रक्षा की बात करने वाले लोग भी बैलो को कत्लगाह में बेच रहे हैं या लावारिश छोड़ देते हैं। एक भी ऐसी गौशाला बता दें, जहाँ पर गायों से ज्यादा या उनके बराबर बैल मौजूद हो। फिर बैल कहाँ गए? औलाद को मारकर माँ की रक्षा करने की बात करना, धर्म के नाम पर ढोंग रचना हैं।
इस विकास से मानवता को क्या मिला, आप सोचकर बतावें। आप कहेंगें कि आबादी बढ़ गई।
शेष अगली कड़ी में—-
लेखक : शिवरतन मुंदड़ा