आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं याँ विनाश- भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-34)
आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं याँ विनाश- भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-34)
हम छोटे थे, तब दो तीन टीके लगते थे, जिनके निशान हमारी उम्र के सभी लोगों की बाँह के ऊपरी हिस्से पर देखने को मिल जायेगें। ये टीके शायद डीपीटी, बीसीजी व कुकर खांसी के लगते थे। बाद में पोलियो की दवा पिलाना शुरू हुआ और अब तो कई प्रकार के टीके- बीसीजी, हेपेटाइटिसB, डीपीटी, हिब, रोटावायरस, न्यूमोकोकल, इन्फ्लुएन्जा, खसरा, चिकन पॉक्स, एम एम आर, मेनिन्जाइटिस, डीटी, एच पी वी आदि लगने लगे हैं।
आम आदमी तो नहीं जानता हैं, पर डॉक्टर को मालूम हैं कि टीके किस तरह ईजाद किये जाते हैं, यानि बनाये जाते हैं? टीके को तीन विधियों से बनाया जाता हैं।
1-बीमारी से सम्बंधित कीटाणुओं को बीमारी रहित करके शरीर में डाला जाता हैं।
2-बीमारी पैदा करने वाले कीटाणुओं द्वारा बनाया हुआ एंटीजन को शरीर में डालना।
3-बीमारी पैदा करने वाले जीवित कीटाणुओं को पहले किसी जानवर के शरीर में डालना, फिर उस बीमारी से बने सीरम को निकालकर एंटीबॉडी तैयार करना।
टीके बनाने की विधि का चयन तो मानव शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को ध्यान में रखकर किया जाता हैं, परन्तु सब में एक बात आम हैं कि टीके के अंतर्गत मानव शरीर में, सम्बंधित बीमारी के कीटाणुओं को ही परिष्कृत कर, प्रवेश कराया जाता हैं, एक तय मात्रा के अनुसार। डॉक्टर टीका लगाने के बाद हमें आगाह करता हैं कि यदि बच्चे को बुखार आ जाय, तो घबराना नहीं।
हमारे शरीर में विजातीय तत्त्व के प्रवेश के साथ ही, शरीर की नैसर्गिक क्रिया, तापमान में वृद्धि करना, स्वतः शुरू हो जाती हैं, जिससे हमें बुखार महसुस होने लगता हैं। बुखार अपने आप में कोई बीमारी नहीं हैं, बल्कि किसी विजातीय तत्त्व के शरीर में प्रवेश कर जाने की सुचना मात्र हैं। जब तक मूल बीमारी का इलाज नहीं होगा, तब तक बुखार नहीं जायेगा।
हमारा विज्ञान इस सारे खेल को सुरक्षित मान कर चल रहा होगा, परन्तु पुरातन ज्ञान के अनुसार यदि इस बात का विश्लेषण करें तो यह एक घातक प्रक्रिया साबित होगी। हमारा पुरातन ज्ञान यह कहता हैं कि किसी भी दो चीजों के मिलन से तीसरी चीज बनती हैं। यह सृष्टि का नियम हैं। हम तो कई तरह के कीटाणु शरीर में टीकाकरण के तहत डाल रहे हैं। अब शरीर में ये कीटाणु मिलकर कौनसी नई नस्ल पैदा कर रहे हैं? इसका पता तो एक नई बीमारी के उदय के साथ ही जान पायेंगें।
पहले पीलिया रोग था, जिसे जोइंडिस् कहा जाता था। अब हेपेटाइटिस, उसमें भी ABCDE कई वैरायटी हो गई हैं। सिरोसिस भी लिवर से सम्बंधित बीमारी का ही नाम हैं। पहले हार्ट अटैक नहीं होते थे, क्योंकि शारीरिक मेहनत बहुत ज्यादा रहती थी। शरीर चुस्त दुरुस्त रहता था। अब आराम के साधन बहुत हो गए तो मोटापा बढ़ने लगा। खून में केलोस्ट्रेल बढ़ने लगा। नई बीमारी बनने लगी। आदमी एक कदम भी पैदल चलने की इच्छा नहीं करता हैं। यह अलग बात हैं कि जनाब डॉक्टर की राय से मॉर्निंग वाक करना शुरू कर दें।
सुख सुविधा जुटाने हेतु पैसा कमाना आवश्यक हो गया पर मेहनत कौन करे? इसलिए सब तरह के उल्टे सीधे काम करने लग गया। बात बन गयी तो ठीक, नहीं तो हाई ब्लड प्रेसर के शिकार बन गए। शुगर याँ थायराइड हो गई। पैसा कमाया, पर ज्यादा लोभ में उसे खो दिया तो लो ब्लड प्रेशर हो गया। अवसाद में चले गए। ब्रेन हेमरेज हो गया। काम भी शारीरिक श्रम की जगह दिमाग वाले ज्यादा हो गए। दिन भर आदमी कुर्सी पर बैठा कम्प्यूटर चला रहा हैं। कोई ड्राइवर गाड़ी चला रहा हैं। कोई लेखन का कार्य कर रहा हैं। कोई कपड़े नाप रहा हैं तो कोई फाड़ रहा हैं। मेहनत का काम केवल दिन मजदूरी करने वालों के अलावा किसी के पास नहीं रहा।
इसके घातक परिणाम यह हुए कि शरीर की कार्य क्षमता घट गई। हम बीमार न होते हुए भी स्थूल शरीर का पूरा आनन्द भोगने में असमर्थ हो गए। अब वो क्षमता व साहस कहाँ गया जो महाराणा प्रताप, शिवाजी मराठा, भगतसिंह जैसे लोगो में था। जो झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, जौहर करने वाली रानी पद्मावती में था। यह सब चरित्र तो हमने पढ़े हैं, इन्हें तो हम झुठला नहीं सकते हैं। मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ, जो पूरा पर्वत उठाकर ले आये थे। आज यह सारा साहस हवा हो गया। इंसान की कार्य क्षमता बहुत कम हो गई। हमारी पूरी नस्ल ही बदल गई। जानते हैं क्यों? हमारा आधुनिक विज्ञान, विज्ञान प्रदत्त आधुनिक चिकित्सा पद्धति, विज्ञान से उत्पन्न पूंजीवादी सोच, और आज की वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति।
हमने पैसा कमाने के लिए केवल इलाज ही नहीं, बल्कि बीमारियां भी ईजाद कर ली।
हमने सुरक्षा के नाम पर, आत्मघाती सामान इकट्ठा कर लिया।
हमने ऐशो आराम के चक्कर में, दुखों का जाल बुन लिया। हमने धन के लिए, संस्कार और संस्कृति दोनों खो दी।
जीवन के कल्याण रूपी ज्ञान व गुरु शिष्य की परम्परा को त्याग कर, पैसे बनाने की शिक्षा को अपना लिया।
शिक्षा के बोझ से बचपन उजाड़ दिया।
उनके बाल मन में प्रतिस्पर्द्धा का बीजारोपण कर दिया।
यह सारा परिवर्तन हमारे आधुनिक विज्ञान की ही देन हैं।
आप की क्या राय हैं?
शेष अगली कड़ी में—-