Saturday, November 17, 2018

आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं याँ विनाश। भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-46)-  

आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं याँ विनाश। भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-46)

 
मारा आधुनिक विज्ञान जीवन के मूलभूत रहस्यों को जानकर अपने विकास की राह तय करतायदि विज्ञान हमारे शरीर की रचना
के बारे में बताये गए वैदिकज्ञान को पहले समझतातो शायद विकास की राह अनुकूल  सही दिशा की ओर अग्रसर होती।जिस भारतीय पुरातन ज्ञान को आज हम पूर्णतया खो चुके हैं,अथवा भुला चुके हैंवो कितना आवश्यक  महत्त्वपूर्ण हैंइसकी
जानकारी केवल उसे ही प्रत्यक्ष हो सकती हैंजिसने इस ज्ञान को जीवन में सिद्ध कर लियाहो।
 
से हम आध्यात्मिक ज्ञान कहते हैंयह हमारे शरीर के विषय का सम्पूर्ण ज्ञान हैं। इन्द्रियों को ही अध्यात्म कहा जाता हैं। इन इन्द्रियों के अलगअलग देवताहोते हैंजिन्हें अधिदेव कहा जाता हैं। अधिदेव से प्राप्त शक्ति सेअध्यात्म (इन्द्रियाँकार्य करती हैं।इन इन्द्रियों के स्थूल भाग यानि बाहरी भाग का जिनसेनिर्माण होता हैंउन्हें अधिभूत कहा जाता हैं।इस प्रकार अध्यात्मअधिदेव  अधिभूतइन तीनो के एक साथ होने को त्रिपुटी की संज्ञा दी गई हैं।
 
संसार में किसी भी क्रिया सम्पादन के लिए इस त्रिपुटी का होना अनिवार्य हैं। त्रिपुटी के हुए बिनाकोई भी क्रिया सम्पादित नहीं हो सकती हैं।उदाहरण केलिए– हम किसी वस्तु को देख रहे हैं। इसमें त्रिपुटी इस तरह से बनेगी।   दृष्टादृष्टिदृश्य। इसमें दृष्टा वो हैंजो देख रहा हैं।दृश्य वो हैंजिसे देखा जा रहा हैं।देखने वाला दृष्टा  देखे जा रहे दृश्य के बीच में जो दुरी हैंउसमें भी कोई ऐसा मैकेनिज्म याँ तत्त्व कार्यरत हैंजिसके माध्यम से 
दृष्टा,उस दृश्य को देखता हैं।उसे दृष्टि कहा गया हैं। इस प्रकार दृष्टादृष्टिदृश्य की त्रिपुटी बनने पर ही देखने की क्रिया
सम्पन्न हो पायेगी।यदि इन तीनो में से कोई भी एक कड़ी नहीं होंतोदेखने की क्रिया सम्पन्न नहीं हो पायेगी। 
 
साधारणतः लोग कार्यक्रिया याँ कर्म शब्दों का तात्त्पर्य एक ही भावार्थ में लेते हैंजो सही नहीं हैं। इनमें अर्थात्मक भेद रहता हैं।हम जो भी करते हैंवो सबकार्य की श्रेणी में आता हैं।कामना याँ इच्छा के वशीभूत अथवा प्रतिफल की लालशा से किया गया प्रत्येक कार्यकर्म की श्रेणी में आता हैंजबकि क्रिया 
स्वतःसम्पादित होती हैं। क्रिया को किया नहीं जाता हैं। जैसे श्वसन क्रिया। रक्त संचारण क्रिया।हम निंद्रा में होंयाँ बेहोश होंतो भी यह क्रियाएँ स्वतः सम्पादित होतीरहती है।कर्म  क्रिया को कार्य शब्द में संयुक्त किया जा सकता हैंपरन्तु कार्य शब्द को कर्म याँ क्रिया शब्द में संयुक्त नहीं किया जा
सकता।
 
 अपने विषय से दूर नहीं जाना चाहते हैंइसलिए उन्हीं बातों का उल्लेख यहाँ पर करेंगेंजो आवश्यक हों।हमारे बाहरी शरीर को देह कहा गया हैं। यहहमारे रहने का मकान हैं। हम आत्मा हैं।इस देह रूपी शरीर (घरमेंहम (आत्मानिवास करते हैं।जब किसी व्यक्ति की मौत हो जाती हैंतो उसकी देह,हमारे समक्ष पूर्वतः मौजूद रहती हैंलेकिन उसमें सजीवता अथवा चेतना का
आभास लुप्तहो जाता हैं।ऐसे में आप स्वयं विचार करें किजो शरीर पूर्ण रूपेणहमारे सामने पड़ा हैंवह अब मृत कैसे हो गयावास्तव में यह शरीर पहले
दिन से ही मृतही होता हैं। उसमें जीवन का अहसासआत्म तत्त्व की उपस्थिति कीवजह से होता हैं।ज्योंही यह आत्म तत्त्व शरीर से जुदा हुआकि सजीवता गायब। चेतना लुप्त। क्रियाशीलता खत्म। स्पंदन बन्द।
 
समें कोई संशय नहीं कि हम आत्मा हैंलेकिन हमने स्वयं को पहचाना नहीं।हम शास्त्र देख पढ़कर याँ किसी महापुरुष के वचनों को सुनकरभले ही यहमान लें कि हम आत्मा हैंपरन्तु इस बात का हमें कोई
आभास याँ अनुभव नहीं हैं। यह आभास  अनुभव हमें आध्यात्म ज्ञान से मिलता हैं।
 
ध्यात्म के अनुसार इस मकान रूपी देह के अंदर यानि हमारे इस दृश्यगत शरीर के अंदर एक और शरीर मौजूद हैंजिसे सूक्ष्म
शरीर कहते हैं। जिसेअन्तःकरण का नाम दिया गया हैं। जिसे हम आम भाषा में जीव कहते हैंवह जीवहमारा यही अन्तःकरण होता हैं।मूलतः अन्तःकरण ही हमारे बाह्य शरीर काउपयोगसांसारिक भोगों अथवा मोक्ष प्राप्ति हेतु करता हैं।अन्तःकरण ही सुख दुःखराग द्वेषमोह माया जैसे कषायों से ग्रसित रहता हैं।यह अन्तःकरण रूपीजीव ही कर्म बन्धनों में जकड़ा हुआ रहता हैं।जीवन मरण के दुष्चक्र में रहने वाला जीवयही अन्तःकरण हैं। वैराग्य की ओर रुख करने वाला भी यहीअन्तःकरण होता हैं।यहाँ तक की चर्चा के बाद एक सवाल आप सभी के समक्ष रखना चाहूँगा कि
हमें अपने किस शरीर के उत्थान  विकास की आवश्यकता हैंमृत देह रूपी बाह्य शरीर हेतु याँ जीव रूप अन्तःकरण
वाले सूक्ष्म शरीर हेतु। 
 
 
 
शेष अगली कड़ी में—–

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