आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं याँ विनाश। भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-54)-
आधुनिक विज्ञान हमारे शरीर के बारे में काफी जानकारियां जुटा चुका हैं, परन्तु हमारे बारे में विज्ञान बहुत कम जान पाया हैं।
आज व्यक्ति शिक्षा को ज्ञान का पर्याय समझता हैं, जबकि शिक्षा केवल जानकारी हैं, ज्ञान नहीं। ज्ञान कर्म से आता हैं, शिक्षा से नहीं। ज्ञान की मंजिल तक पहुंचने की एक सीढ़ी, शिक्षा भी मानी जा सकती हैं, परन्तु ज्ञान का इससे ज्यादा कोई सम्बन्ध, शिक्षा से नहीं हैं।
विज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र को भी प्रतिस्पर्द्धा का मंच बना दिया। पूरी शिक्षा पद्धति आत्म कल्याण के मार्ग से हटकर, धनोपार्जन का मार्ग बन गई। इस का परिणाम यह हुआ कि, हम आलौकिक जगत को छोड़कर, लौकिक संसार में उलझ गए। योग की जगह, भोग में लग गए। केंद्र को त्याग कर परिधि पर पहुंच गए। आज भी दुनियाँ में अन्यत्र कहीं पर भी स्व का ज्ञान उपलब्ध नहीं हैं, जो हमारे ऋषियों ने हमें कई सदियों पहले ही दे दिया था। यह गूढ़ ज्ञान अब केवल हमारे शास्त्रों की शोभा मात्र बनकर रह गया हैं। इससे धनोपार्जन नहीं हो सकता, इससे प्रतिस्पर्द्धा नहीं हो सकती बल्कि यह सन्तोष का मार्ग हैं, सन्तुष्टि का मार्ग हैं। आज इस ज्ञान को समझने व समझाने वाले लोग बहुत कम ही बचे हैं। उनको भी शायद पूर्ण ज्ञान उपलब्ध नहीं हों। अच्छाई का परिणाम देरी से मिलता हैं, क्योंकि वो स्थायी व सुखद होता हैं, जबकि बुराई का परिणाम तुरन्त प्राप्त होता हैं, जो कि क्षणिक सुख ही देता हैं, तथा बाद में उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं, परन्तु फिर भी आज का विकसित कहा जाने वाला इंसान उसी की तरफ आकृष्ट होता दिखाई देता हैं। आप ने कभी सोचा कि, ऐसा क्यों होता हैं?
शायद ही किसी का ध्यान इन सब बातों पर जाता होगा, क्योंकि आज मानव जो भी कर रहा हैं, उसे सही मानकर ही कर रहा हैं। वैसे भी जो सब करते हैं, उसे सही मान लिया जाता हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के नायक एडोल्फ हिटलर ने तो यहां तक कहा हैं कि, किसी झूठी बात को बार बार प्रचारित कर उसे सत्य का रूप दिया जा सकता हैं। झूठी बात भी सत्य प्रतीत होने लगेगी। इस बात का उपयोग उसने स्वयं भी बहुत बार किया था, पूर्ण सफलता के साथ।
ऐसे समय में हमारे पुरातन ज्ञान को समझना याँ उस पर अमल करते हुए जीवन गुजारना, असम्भव सा लगता हैं। आज के युग में उस पुरातन ज्ञान की किसी को जरूरत नहीं हैं, उसकी महत्ता लोगों को पता नहीं हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी यह ज्ञान घटता जा रहा हैं और अंततः इसका लोप हो जायेगा। हमारी जीवनशैली व क्रियाकलाप सब बदल चुके हैं। ज्ञान का आधार ही खत्म हो गया हैं। अब तो देर से सोना व सूर्योदय के बाद उठना, मशीनों अथवा नौकरों से कार्य सम्पादित करना, खाना हेतु बाहर जाना व शौच हेतु घर में आना, दोस्ती याँ रिश्ते-नातों में दगा करना, समय व परिस्थिति के अनुसार पाला बदलना, बात पर कायम न रहना, इज्जत समाज याँ भगवान से नही डरना, दुष्टों का सम्मान करना, अन्याय का साथ देना, स्वार्थ में जीना, नशा व अय्यासी करना, झूठ बोलना, धोखाधड़ी करना, चापलूसी करना, जागते हुए सपने देखना, येन केन प्रकारेण धन अर्जित करना, एक दूसरे की टांग खींचना याँ नीचा दिखाना, पीठ में छुरा घोंपना, मुंह में राम बगल में छुरी रखना, दूसरों में दोष ढूढ़ना, किसी के दुःख में खुश होना, दूसरों की ख़ुशी में जलना, विश्वासघात करना, यही सब कार्य आज के मानव के पास करने को रह गए हैं। इन सब के पीछे परोक्ष व अपरोक्ष रूप से हमारे आधुनिक विज्ञान का ही हाथ हैं। उसी ने मानव शरीर को साधन और सुविधाओं से युक्त कर इस हालात में पहुँचाया हैं।
आज हम वैश्वीकरण की बात करते हैं, पर कहीं जाना हो तो कितनी खानापूर्ति व भागदौड़ करनी पड़ती हैं, यह किसी से छुपा नहीं हैं। सम्पूर्ण संसार में ऊंचनीच, अमीरगरीब, गोराकाला, जातिवाद, राष्ट्रवाद आदि भेदभाव का जहर भरा पड़ा हैं। क्या हम केवल व्यापार के लिए वैश्वीकरण की बात कर रहे हैं?
वास्तविकता यह हैं कि, आज सम्पूर्ण मानव जाति विनाश के कगार पर खड़ी हैं। उसका तन मन और धन, सब विनाश के लिए ही उपयोग आ रहे हैं। साधन व सुविधाओं की उपलब्धता को विकास का नाम देना हमारी मूर्खता हैं। इन साधनो और सुविधाओं से तो हम बर्बाद हो रहे हैं। हमारे अंदर मानवीय गुणों का लोप हो रहा हैं। हमें यदि इस विनाश से बचना हैं, तो भारतीय पुरातन ज्ञान को आत्मसात करना होगा। उसी पर चलना होगा। उसी की खोज करनी होगी। तभी हमारी वसुदेव कुटुम्बकं की अवधारणा साकार होगी।
शेष अगली कड़ी में—-
लेखक : शिव रतन मुंदड़ा