न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त गलत हैं – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-18)
न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त गलत हैं – भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-18)
वायु तत्त्व की प्रकृति व कार्य प्रणाली जब हम पूर्णतया समझेंगें, तब ही हमें पूरी बात समझ में आएगी। विज्ञान ने एक परीक्षण किया। लोहे का एक ग्लोब दो हिस्सों में बनाया। उसके दोनों हिस्सों को मिलाकर, उसमें से वायु निकाल दी। वायु निकलते ही दोनों हिस्से आपस में चिपक गए, क्योंकि वायु रहित उस ग्लोब के चारों ओर वायु का दबाब बढ़ने लगा। वायु उस वायु रहित ग्लोब के अंदर जाने के लिए प्रयास करने लगी। दोनों हिस्से उस बाहरी वायु दाब की वजह से आपस में चिपक गए। फिर उन दोनों हिस्सों के बाहर लगी लोहे की लम्बी सांकलों में दस-दस हाथियों को दोनों तरफ बांधकर, विपरीत दिशाओं में खिंचवाया गया, ताकि ग्लोब के दोनों हिस्से अलग हो सके। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा की दोनों तरफ लगे दस-दस हाथियों का बल भी उन दोनों हिस्सों को अलग-अलग नहीं कर पाये। इस प्रयोग के उदाहरण से आपको वायु दाब की शक्ति व वायु दाब का कारण, दोनों बात स्पष्ट हो चुकी होगी।
हमारे इस पृथ्वी ग्रह पर चारो ओर जो वायुमण्डल लिपटा हुआ हैं, उसी से मेरा यह मानना हैं कि हमारी पृथ्वी के अंदर का कुछ हिस्सा खोखला व वायु रहित अवश्य हैं। विज्ञान के मतानुसार हमारी पृथ्वी का केन्द्रीय भाग ठोस लोह धातु को बना हैं, जबकि मेरा मानना हैं कि यह खोखला हिस्सा लगभग पृथ्वी के मध्य भाग में ही होना चाहिए, जहाँ वायु को प्रवेश करने का रास्ता नहीं मिल रहा हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो हमारा वायु मण्डल अंतरिक्ष में विलीन हो जाता।
विज्ञान द्वारा मान्य यह बात कि, “हम पृथ्वी के वायु मण्डल में प्रवेश करते हैं, तो उत्तरोत्तर वायु दाब बढ़ता जाता हैं,” से भी यह सिद्ध होता हैं कि हमारे ग्रह की सतह पर अधिकतम वायु दाब रहता हैं। जैसे जैसे हम ऊपर यानि पृथ्वी से दूर होते जायेंगें वैसे वैसे वायु दाब कम होने लगेगा। जब हम वायु मण्डल से पूर्णतया बाहर हो जायेंगे, तब स्वतः भारहीनता की स्थिति आ जाती हैं।वायु की इस सामान्य प्रकृति के अलावा, अब हमें उन बातों को भी समझना होगा, जो हमें दैनिक जीवन में आम देखने को मिलती हैं।
जब वायु अग्नि या सूर्य के तीव्र ताप के सम्पर्क में आने से गर्म होने लगती हैं, तो ऊपर की ओर जाने लगती हैं। यहाँ वायु की मूल प्रकृति में अंतर प्रतीत होने लगता हैं। पृथ्वी के चारों ओर दाब बनाने वाली वायु अंतरिक्ष की तरफ उन्मुख होने लगती हैं। ताप के प्रभाव से वायु का रूपांतरण अलग-अलग गैसों में होने लगता हैं। कई बार तो इस ताप के प्रभाव से वायु तत्त्व की अवस्था का भी रूपांतरण हो जाता हैं। आकाश व वायु से ही तेज तत्त्व की उत्पत्ति हुई। फिर इन तीनो तत्त्वों के संयोग से जल तत्व बना हैं। ज्योंही वायु गर्म होती हैं, उसके गुण धर्म में परिवर्तन होने लगता हैं। हमारे पुरातन ज्ञान में यह बात स्पष्ट रूप से बताई गई हैं कि कोई भी दो चीजों के मिलन से तीसरी चीज पैदा होगी। उनकी प्रकृति व गुण धर्म में भी परिवर्तन आएगा।
यही कारण हैं कि तेज तत्व के संग से वायु की मूल प्रकृति व गुण धर्म में बदलाव हो जाता हैं। पृथ्वी की सतह से चिपकी हुई वायु ऊपर की ओर गमन करने लगती हैं, परन्तु हमारी पृथ्वी के वातावरण में व्याप्त अन्य गुण यहा हमारी मदद करते हैं, जिसकी चर्चा हम अगली कड़ी में करेंगे।
शेष अगली कड़ी में……………… लेखक व शोधकर्ता : शिव रतन मुंदड़ा