आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं याँ विनाश। भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-53)-
प्राचीन काल में मनुष्य का मन पर नियन्त्रण होता था। इस नियन्त्रण के पीछे मुख्य हाथ प्रकृति का ही होता था। उस समय प्रकृति, आज की तरह अशुद्ध नहीं थी। साधन प्रकृति के अनुरूप खोजे जाते थे, और सुविधाएँ प्रकृति के अनुकूल बनाई जाती थी।
हमने भी सुना होगा कि
जैसा खावे अन्न,
वैसा होवे मन।
वैसे तो यह बात शाब्दिक अर्थ में अधूरी हैं, पर हमारे पुरातन ज्ञान के आधार पर इसे समझा जावें तो इसका पूरा अर्थ यह मानना होगा कि, हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से (शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गन्ध) जो भी ग्रहण करते हैं, उन सब से हमारे मन का निर्माण होता हैं। मन प्रतिपल बनता हैं व मरता हैं। यही क्रिया संकल्प विकल्प का रूप बनती हैं। आप को जैसे शब्द सुनने को मिलेंगें, उसी हिसाब से आपका मन निर्मित होगा। कोई ज्ञानवर्धक चुटकुले, कविता पाठ याँ सत्संग में रूचि रखता हैं, तो कोई गन्दे चुटकुले, गन्दी कविताएँ व गन्दी बातें सुनने में रूचि लेता हैं। शब्द हमारे मन का निर्माण करते हैं। कोई झूठी तारीफ से खुश हो जाता हैं, तो कोई सही बात बताने पर भी नाराज हो जाता हैं। परनिंदा भी शब्द ज़ाल हैं, तो परस्तुति भी शब्द ज़ाल ही हैं लेकिन व्यक्ति अपनी स्तुति से खुश व निंदा से दुःखी हो जाता हैं। आपने कभी सोचा कि ऐसा क्यों होता हैं? ऐसा इसलिए होता हैं कि, इन्हीं शब्दों से हमारे मन का निर्माण हुआ होता हैं। इस बात पर एक व्यक्ति ने कहा कि, हम यदि हिंदी नहीं समझने वाले किसी अंग्रेज व्यक्ति को, हिंदी में गाली बोलें तो वह नाराज नहीं होगा, जबकि हिंदीं जानने वाला व्यक्ति तुरन्त उखड़ जायेगा, क्योंकि उसे मालूम हैं कि, यह गाली हैं। यहाँ व्यक्ति की समझ से प्रतिक्रिया हुई याँ शब्द से।
यह विषयान्तर्गत पूछी गई सटीक बात हैं, जिसे समझना भी आवश्यक हैं। कोई भी बात, चाहे अच्छी हो याँ बुरी, उसको हमारा मन ही समझता हैं। आपको मन की रुपरेखा पहले ही बता दी गई हैं। मन के अन्तर्गत जो सत्रह अवयव (पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ,पञ्च कर्मेन्द्रियाँ,पञ्च प्राण, चित्त व अहंकार) आते हैं, उसमें चित्त स्मृतियों का संग्रह करता हैं। चित्त मन का ही पार्ट हैं। इन्हीं स्मृतियों का उपयोग बुद्धि, निर्णय लेने में करती हैं। बुद्धि से ही अहंकार पैदा होता हैं। रावण अत्यन्त ज्ञानी एवम् बुद्धिमान था। इस बुद्धिमानी की वजह से वो अहंकारी बन गया था, जो अंततः उसके विनाश का कारण बनी।
जब बच्चा जन्म लेता हैं, तब उसके अंदर मन की स्थिति निर्मल होती हैं। मन बच्चे में भी होता हैं। मन ही हमारे पुनर्जन्म का कारण होता हैं, पर जन्मावस्था में मन निर्मल होता हैं। वहीं से संसार की यात्रा शुरू होती हैं। हम बच्चे में रोज नये-नये संस्कार डालने लगते हैं। हम ही उसे छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, अपना-पराया, तेरा-मेरा, अच्छा-बुरा, सही-गलत, इत्यादि की भेद दृष्टि देते हैं। यह संस्कार रूप बातें उसके मानस पटल पर अंकित होकर चित्त में संग्रहित होने लगती हैं। इसी के फलस्वरूप भाषायी शब्द ही हमें उद्वेलित करते हैं, चाहे वो शब्द स्तुति के हो चाहे निंदा के। हमें जो संस्कार देख-सुनकर प्राप्त हुए, वो ही हमारा आधार होता हैं। उसी से हमारे मन का निर्माण हुआ होता हैं। यही कारण हैं कि नई भाषा में बोले गए शब्द, हमारे मन को प्रभावित नहीं करते हैं। यह बात केवल शब्द पर ही नहीं बल्कि सभी तन्मात्राओं (शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गन्ध) पर भी लागु होती हैं। इन सबका, हमारे अंदर डाले गए संस्कारों के अनुरूप ही मन पर असर होगा। यही कारण हैं कि, जो शब्द नई भाषा के होते हैं, वो हमारे मन को प्रभावित याँ निर्मित नहीं करते हैं। पहली गुरु माँ को भी इसीलिए माना गया हैं, क्योंकि माँ से ही संस्कारों का निर्माण शुरू होता हैं।
इस प्रकार शब्द, स्पर्श, रूप(दृश्य), रस(स्वाद), व गन्ध इन सबसे हमारे मन का निर्माण होता हैं। हम इनमें से कोई भी चीज, जिस रूप में ग्रहण करेंगें, वैसा ही हमारे मन होगा। केवल अन्न ग्रहण तक ही मन को सिमित जानकर याँ मानकर हम अमन की स्थिति को प्राप्त नही कर सकते हैं।
हमारे मनीषियों द्वारा प्रदत्त इस प्राचीन ज्ञान को आधार मानकर आधुनिक विज्ञान के कार्यों की समीक्षा करें तो पायेंगें कि, सब कुछ गलत घटित हो रहा हैं। विज्ञान प्रकृति विरुद्ध कार्य कर रहा हैं। जहाँ विज्ञान की हर खोज मानव मन को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए, उसकी जगह मानव शरीर को ध्यान में रखकर की गई हैं, और यही कारण रहा हैं कि विज्ञान की हर खोज, मानव सभ्यता व संसार के लिए, विकास की जगह, विनाश का कारण बनती जा रही हैं। हर अच्छाई, बुराई में बदलती जा रही हैं। इस पर शीघ्र ध्यान नहीं दिया गया, तो विज्ञान ही संसार की समाप्ति का मुख्य कारण बनेगा।
शेष अगली कड़ी में—-
लेखक : शिव रतन मुंदड़ा