अब इस प्रक्रिया का प्रारम्भ बताना सम्भव नहीं याँ फिर जो कोई जहाँ से बता दे, उसे ही मानलो। प्रकृति की हर क्रिया वर्तुलाकार ही होती हैं। इसी कारण से इसे संचालित करने की जरूरत नहीं। इसी वजह से प्रकृति को मैंने स्वचालित (automatic) कहा हैं। जब हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करते हैं, तो प्राकृतिक प्रकोप होने लगते हैं, जिससे प्रकृति अपने को पुर्नस्थापित कर लेती हैं। यानि कि प्राकृतिक प्रकोप द्वारा प्रकृति स्वयं को सन्तुलित करती हैं। अपना मूल रूप स्थापित करती हैं।
हमारे पौराणिक ज्ञान में जो पञ्च तत्व बताये गए हैं, उन्हीं से पदार्थ का वर्तुल बनता हैं। इन सभी अवस्थाओं से क्रमानुसार गुजरते हुए पदार्थ बनता हैं, उन्हीं अवस्थाओं से लौटते हुए पदार्थ अपने मूल रूप को पुनः प्राप्त करता हैं। इसमें से कोई एक भी हटा दें, तो पदार्थ मूल रूप को प्राप्त हो ही नहीं सकता। वर्तुल नहीं बनेगा, और बिना वर्तुल के प्रकृति चल ही नहीं सकती।
पदार्थ की जो पाँच अवस्थाएं क्रमानुसार, हमारे ग्रंथों में बताई गई हैं, उसमें सबसे पहली अवस्था आकाश तत्व के नाम से बताई गई हैं। आकाश का अर्थ भी हमारे द्वारा गलत परिभाषित किया जा रहा हैं। प्रचलित अर्थ में यह बताया जाता हैं कि, आकाश यानि अवकाश यानि कि खाली जगह। यह अर्थ गलत हैं, क्योंकि खाली जगह एक स्थिति हो सकती हैं, अवस्था नहीं। खाली जगह यानि कुछ भी नहीं। यह अनुपस्थिति को इंगित करता हैं, न कि किसी क़ी उपस्थिति को। यदि खाली जगह आकाश हैं, तो फिर आकाश तत्व कहाँ गया? इसी तरह अंग्रेजी भाषा में भी अंतरिक्ष को space कहा जाता हैं जिसका अर्थ भी खाली जगह ही होता हैं, जबकि आकाश तत्व पूरे ब्रह्माण्ड में मौजूद हैं। इस पूरे ब्रह्माण्ड में कोई भी जगह ऐसी नहीं हैं, जहाँ आकाश तत्व की उपस्थिति न हों। आकाश तत्व पदार्थ की पहली अवस्था हैं। उसके बिना आगे का निर्माण याँ ब्रह्माण्ड का नियमित विस्तार सम्भव ही नहीं। हम दूर से कोई वस्तु देखते है, तब हमारी आँख व दृश्य के बीच की दूरी में दृष्टि को ले जाने वाला वाहक याँ माध्यम यह आकाश तत्व ही बनता हैं।
हम टीवी देखते हैं, मोबाईल का उपयोग करते है। इनके बारे में किसी से पूछे, तो तुरन्त प्रत्युत्तर मिलेगा क़ि यह सेटेलाइट का कमाल हैं। साधारण रूप में बात ठीक हैं परन्तु इन सब की सफलता के पीछे आकाश तत्व ही हैं जो वाहक व माध्यम के रूप में इन कार्यों को अंजाम देता हैं।
शेष अगली कड़ी में–