Thursday, August 30, 2018

आधुनिक विज्ञान से विकास हो रहा हैं याँ विनाश। भारतीय पुरातन ज्ञान (भाग-57)-  

स जगत को झूठा बताया गया हैं। मायारूप कहा गया हैं। जहाँ हर घड़ी हर पल परिवर्तन होता रहता हैं, उसे असत्य माना जाता हैं। सत्य उसे कहा जाता हैं, जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। वह हर समय हर जगह समान अवस्था में रहता हैं। हमारे इस भौतिक जगत में कोई भी चीज ऐसी नहीं हैं, जिसमें परिवर्तन नहीं हो रहा हो। यह परिवर्तन कई चीजों में हमें दिखाई नहीं देता हैं, परन्तु वहाँ पर भी परिवर्तन जारी रहता हैं।
मानव की रचना को समझें, तो हमारे इस शरीर को निर्जीव माना गया हैं। इस निर्जीव शरीर को चलाने वाला होता हैं, हमारा मन। मन ही आत्म तत्त्व के संग से जीव रूप बनकर शरीर धारण करता हैं। यह शरीर ही साधन रूप होता हैं, जिसको पाकर मन अपनी अतृप्त इच्छाओं व कामनाओं की प्राप्ति करता हैं। मन के अधीन ही व्यक्ति का जीवन चलता हैं। मन हमें परम् तक ले जा सकता हैं, और मन ही हमें गहरे अंधकार में धकेलता हैं। मन हमें मुक्ति के मार्ग पर पहुंचा सकता हैं, और यही मन हमें जीवन मरण के भँवर में फँसा सकता हैं।
एक तरफ हमारा यह दिखाई देने वाला शरीर हैं, जो सदैव मृत ही होता हैं, और एक तरफ आत्मा जो दृष्टा मात्र होता हैं। आत्मा कुछ भी नहीं करता हैं। आत्मा केवल साक्षी भाव में उपस्थित रहता हैं। अब बचता केवल मन हैं, जिसकी वजह से जीवन भर यह बखेड़ा चलता हैं। हमें अपनी बात को समझने के लिए  इसी मन को सबसे पहले समझना होगा।
में आत्मा का साक्षात्कार हो नहीं सकता, क्योंकि हम स्वयं आत्मा हैं। आँख से सारी दुनियाँ देखते हैं, लेकिन आँख को किससे देखें? हमारा मन कहाँ पर हैं? क्या उसको देखा समझा याँ पकड़ा जा सकता हैं?
यह भी सम्भव नहीं, क्योंकि मन का कोई भौतिक अस्तित्त्व नहीं होता हैं। मन छाया की तरह हैं। छाया होती हैं, फिर भी उसका कोई अस्तित्त्व नहीं होता। प्रकाश की उपस्थिति में जहाँ प्रकाश अनुपस्थित रहता हैं, वहाँ छाया का प्रादुर्भाव होता हैं। हम दर्पण देखते हैं, उसमें हम दिखाई देते हैं, पर हम फिर भी वहाँ नहीं रहते हैं। ज्ञान रूपी आत्मा के प्रकाश में इच्छाओं, कामनाओ, तृष्णाओं के धुएं से आदमी अंधकार रूपी अज्ञान में पड़कर इस साधन रूप शरीर को भोगो के लिए धारण करता हैं। मन विचार हैं। विचार शब्द से बनते हैं। उनमें आवाज याँ ध्वनि नहीं होती, फिर भी शब्द तो रहते ही हैं। इसी लिए वाणी को भी चार भागों में (बैखरी, मध्यमा, परा व पश्यन्ति) वर्णित किया गया हैं। हर विचार एक मन का निर्माण करता हैं। विचार हमारे अंदर निरन्तर चलते रहते हैं, इसी तरह मन का निर्माण भी निरन्तर होता रहता हैं। यह विचार भगवत् प्राप्ति के हो सकते हैं जो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता हैं, और यह विचार सांसारिक भोगों के भी हो सकते हैं, जो हमें अतल गहराइयों में धकेल देते हैं। हम जीवन मरण के दुष्चक्र में फंस जाते हैं। एक तरफ रौशनी हैं, क्योंकि वह ज्ञान का मार्ग हैं, तो दूसरी ओर अंधकार हैं क्योंकि वह अज्ञान का मार्ग हैं। मन के रहते यह संसार जिन्दा हैं, ज्योंही अमन की स्थिति बनती हैं, संसार अदृश्य हो जायेगा। मन बिना पेंदे का बर्तन हैं, जो कभी नहीं भरता। जितना इसमें डालते जायेंगें, उतना ही यह खाली होता जायेगा।
में संसार का ज्ञान, ज्ञानेन्द्रियों से होता हैं। पाँच महाभूतों से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ निर्मित होती हैं। हम ज्ञानेन्द्रियों में कान, त्वचा, आँख, जिव्हा,व नाक को बताते हैं, जो क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी तत्त्व से बनी हैं। प्रत्येक तत्त्व से एक ज्ञानेन्द्रिय बनती हैं। आकाश तत्त्व से शब्द, जिसकी ज्ञानेन्द्रिय कान (कर्ण) हैं। इसी तरह वायु से स्पर्श, जो त्वचा से हम महसूस करते हैं। तेज से रूप (आकार), जो हम आँख से देखते हैं। जल से रस (स्वाद), जो हमें जिव्हा से अनुभव होता हैं और पृथ्वी से गन्ध, जो हम नाक (नासिका) से ग्रहण करते हैं। इस प्रकार शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का अनुभव हम ज्ञानेन्द्रियों से ही करते हैं। आम तौर पर हम जिन्हें ज्ञानेन्द्रियों के रूप में जानते हैं, (यानि नाक, कान, आँख, जिव्हा व त्वचा) वो वास्तव में ज्ञानेन्द्रियाँ नहीं हैं बल्कि वो अंग केवल साधन याँ हेतु हैं जिनसे हमें उनसे सम्बंधित ज्ञान की प्राप्ति मात्र होती हैं। ज्ञान को प्राप्त करने वाली असली ज्ञानेन्द्रिय की उपस्थिति तो भीतर हैं, जो इनसे प्राप्त जानकारी को ग्रहण करती हैं। चूँकि इन ज्ञानेन्द्रियों का निर्माण शुद्ध सत्त्वयुक्त गुणों से होती हैं, इसलिए हमें वो असल ज्ञानेन्द्रियाँ दिखाई नहीं देती हैं।
हम शारीरिक गतिविधि को ध्यान में रखते हुए यदि इस बात का विश्लेषण करें, तो पायेंगें कि हर ज्ञान का अनुभव हमारा मन करता हैं। शव्द  स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सभी का ग्रहण मन के द्वारा ही किया जाता हैं। यही कारण हैं कि मन किसी बात से प्रसन्न हो जाता हैं, तो किसी बात से खिन्न हो जाता हैं। किसी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श से खुश हो जाता हैं, तो विपरीत स्थिति में मन रुष्ट हो जाता हैं। तो क्या पाँचों ज्ञानेंद्रियों का कार्य हमारा एक मन ही देखता हैं?
क्या मन में ही पाँचो ज्ञानेन्द्रियों का समावेश हैं?

शेष अगली कड़ी में—-                                                 लेखक : शिव रतन मुंदड़ा

 

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