हिंदुस्तान में न कानन का राज है और न ही सच्चाई का ?
यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन सत्य यही है हिंदुस्तान में न कानन का राज है और न ही सच्चाई का ?
वेसे कोर्ट तक में यह कहा जाता है कि कानून अंधा होता है जिसका सच्चाई से कोई लेना देना नहीं होता है. यह तथ्य कोई नीचे के कोर्ट पर ही लागू नहीं होती बल्कि सुप्रीम कोर्ट की भी वही स्थिति है. ताजा उदाहरण अरुणाचल प्रदेश का ही ले लीजिये, वहा एक स्थिर व बहुमत वाली सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने कानून को आधार बनाकर अपदस्थ कर दिया और अब वापिस सच्चाई के करीब पूरी सरकार ने ही पाला बदल डाला. ठीक कुछ ऐसा ही कुछ एक बाहुबली के मामले में बिहार में देखा जा सकता है जहा एक बाहुबली को जमानत मिल गयी थी.
हालाकि अब तो यह कहना सही नहीं है कि कोर्ट सिर्फ उबलब्ध सबूतों व कानून के अनुसार ही चलते है बल्कि आजकल कुछ अति-सक्रिय कोर्ट की चाल से ऐसा आभास होता है कि विवेकाधिकार का अधिक से अधिक उपयोग या दुरुपयोग हो रहा है. कई बार तो ऐसा लगता है कि जजों की नियुक्ति संबंधी कोल्लेजियम विवाद को लेकर भारत सरकार व सुप्रीम कोर्ट में एक दूसरे को सबक सिखाने का प्रयास किया जा रहा है.
जहा इतने बड़े स्तर पर सचाई की कोई नहीं सुनता, वहा आम आदमी तो सच्चाई के भरोसे न्याय ले ही नहीं सकता. ज्यादातर मामलो में तो न्याय व सच्चाई का फेसला वकील के स्टैण्डर्ड व न्यायार्थी की आर्थिक हालात पर ही निर्भर करती है. सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट के कुछ जजों के विरुध्द लगे कई गंभीर आरापो के चलते न्याय व सच्चाई की जीत अपेक्षा करना ही बेमानी है. आयकर ट्रिब्यूनल जेसे कोर्ट में तो न्याय को प्रभावित करने के लिए ट्रिब्यूनल के सदस्यों को टूर पर भेज दिया जाता है, ऐसे में सचाई के साथ न्याय केसे होगा, यह तो भारत में तो संभव नहीं है.
जहा तक क़ानून की बात है, हिन्दुस्तान के लगभग सारे कानून पंगु या आधे-अधूरे है जिससे उतने प्रभावशाली न होने से कानून का राज भी संभव नहीं है. देश में कानून भी मुख्य रूप से व्यवस्था का गुलाम है. देश में कई जज / मजिस्ट्रेट इतने एक्टिव है कि उनके कोर्ट में मुकदमो की कोई लाइन ही नहीं होती जबकि अधिकांश जज / मजिस्ट्रेट के कोर्ट में मुकदमो की लाइन ही नजर आती है ऐसे में काननों का राज केसे संभव है?