तीन तलाक़ समाप्त – सराहनीय फेसला लेकिन …………..?
तीन तलाक़ समाप्त – सराहनीय फेसला लेकिन …………..?
कल माननीय सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम समाज में चल रही कुरीति / रिवाज “ तीन तलाक़ ” को गेर कानूनी घोषित कर इसे समाप्त कर दिया. यह एक बहुप्रतीक्षित फेसला था लेकिन यह सुप्रीम कोर्ट का एक सराहनीय फेसला है जिसका लगभग सभी वर्गों ने मोटे तोर पर स्वागत किया है. जो काम हमारे राजनेता नहीं कर पाए और नहीं कर पाते, वह कार्य आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को करना पडा. लेकिन इस फेसले के एक तथ्य वाकई चिंताजनक है लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है लेकिन मै इसे रेखांकित करना चाहूंगा.
थोड़ा पीछे चले तो सुप्रीम कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की एक संवेधानिक बेंच (पीठ) का गठन किया जिसने मामले की सुनवाई की. सुप्रीम कोर्ट के सामने कई मामले थे जो कि मुस्लिम महिलाओं द्वारा ही दायर किये हुए थे. संवेधानिक बेंच (पीठ) के गठन के लिए 5 अलग-अलग धर्मो के जजों को शामिल किया गया था.
इस संवेधानिक पीठ में चीफ जस्टिस जे एस खेहर (अल्पसंख्यक सिख समुदाय से), जस्टिस अब्दुल नजीर (अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय से), जस्टिस आर एफ नरीमन (अल्पसंख्यक पारसी समुदाय से), जस्टिस यु यु ललित (हिन्दू समाज से) व जस्टिस कुरियन जोसेफ (अल्पसंख्यक क्रिस्चियन समुदाय से) शामिल थे.
इस संविधान पीठ में जनसंख्या के आधार पर सबसे कम प्रतिनिधित्व हिन्दू समाज के जजों को देकर, सुप्रीम कोर्ट में एक तरह से धर्म निरपेक्षता व निष्पक्षता दिखाने का इमानदार प्रयास किया. लेकिन यहाँ पर यह भी चिंता का विषय था कि देश के हालात को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को भी राजनीतिक पार्टियों की तरह अपने आप को धर्म निरपेक्ष दिखाने का प्रयास करना पडा.
इस सारे फेसले में चिंता का विषय यह है कि यह फेसला सर्व सम्मति के स्थान पर 3 – 2 के बहुमत से हुआ और दो अल्प संख्यक समुदाय के जजों ने विरोध में वोट किया. क्या सुप्रीम कोर्ट में भी जज लोगो की सोच भी धर्म की कट्टरता से प्रभावित हो सकती है ? पारसी समाज में भी पर्सनल law है और यदि तीसरे जज भी यदि अपने समाज के कट्टर कानून से प्रभावित होते तो मुस्लिम महिलाओं को कभी न्याय नहीं मिलता.
अत: यह फेसला जजों की निजी विचारधारा के अनुसार सर्व सम्मति से न होकर बहुमत से होना देश के लिए बड़ा ही चिंता का विषय होना चाहिए क्योकि सुप्रीम कोर्ट के जजों को ऐसी सभी बातो से बहुत ऊपर समझा जाता है.